…….””मैं से मैं” तक ….
लेखिका जूही श्रीवास्तव
…फिसल कर वक़्त के फर्श पर उम्र ढल रही है ,
बिन जिये ही लगता है जैसे ज़िन्दगी निकल रही है।…
बरसो बीत गए उस घर से विदा हुए,बरसो बीत गए नई दुनिया बसाये हुए ।
पत्नी ,बहु ,माँ …बहुत ही सरल भाव से समर्पित कर दिया था स्वयं को मैंने, ठीक वैसे ही ,जैसे समर्पित कर दिए जाते है सुगंधित पुष्प देव तुल्य को ….
सबको समेटे एक उम्र गुज़र गयी समाज , घर ,परिवार ,काम काज और रिश्तों को जीते संभालते ।
एक स्त्री की उपस्थिति हवा -धूप जैसी होती है –उपस्थिति में उसका ध्यान भी नही आता पर अनुपस्थिति बहुत मारक होती है।
बहुत जिया , बहुत किया कांधो पर दुसरो की अपेक्षाओं का भार लिए, फिर जाना कि इन सबमे मैंने खुद को तो दूर कही पीछे ही छोड़ दिया …
घड़ी नही.. मेरा समय ही कही खो गया ,खुद को खुद से मिले ही अरसा हो गया ।
एक अरसे बाद जाना कि मेरी सबसे बड़ी जिम्मेदारी, तो मैं खुद हूँ।
“”स्त्री व्यर्थ नही ,इस सृष्टि का अर्थ है””….ये शब्द मन को कहीं झकझोरने लगे ,अपनी सार्थकता तलाशने लगे । और फिर कोशिश शुरू की उन उपनामों के नीचे दबे ,स्वयं को खोजने की ।
प्रत्येक मनुष्य एक अधूरा इंद्रधनुष ही तो है ,जो जीवन भर अपने खोये हुए रंगों को खोजता रहता है ….
स्वयं को खोजते खोजते मैं उतारने लगी खुद को पन्नो पर, लिखने लगी अपने मनोभावों को,अनछुए एहसासों को ,अनकही बातो को ।
कुछ लोगो ने कहा ‘अच्छा लिखती हो तुम’ ..सराहा ,थपथपाया पर कुछ को शब्द चुभे भी ।
गुलाबी रंग तो समाज ने औरत के हिस्से में दिए ही ,लेकिन मुझे भाये वो सारे रंग ,जो एक औरत समेटे रहती हैअपने अंदर के सतरंगी आकाश और धानी ज़मीन के बीच।
मैंने ऊबते तक वक़्त दिया खुद को ,जुड़ने लगी आध्यात्म में ,पारंगत तो नही थी पर बस मन भर खोई खुद में ,अतीत को अनदेखा कर, दबा दिया उन कांटो को कही बहुत नीचे ,जिनकी चुभन के दाग मैं दुनिया से छुपाया करती थी ।
कोई मलहम नही होता उन घावों का जो दिखते तो नही पर दुखते बहुत है ,कोई नही सुनने आता उन चुप्पियों को ,बैठी होती है जो फीकी मुस्कान के पीछे ।
अब उस ठहराव पर हूँ,
कि हर रिश्ते को ,
सामने वाले जितना ही मांन देती हूं,,
खुद से ज़्यादा तवज़्ज़ो किसी और को नही देती हूँ ।
अपने लिए वक़्त चुरा ही लेती हूँ, भूले बिसरे गीतों को गुनगुना लेती हूँ ।
चादर पर काढ़े गए फूलों के साथ मुस्कुराने लगी हूँ ।
ज़िन्दगी एक ही बार मिलती है सबको ,खुद को भी ये समझाने लगी हूँ ।
वक़्त का तकाज़ा था ,बदलने लगी हूँ ।भावनाओं को शब्दो मे पिरोकर ,अपने एहसासों को लिखने लगी हूँ ।
हाँ … मैं बदलने लगी हूँ ।