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मेरी ज़िंदगी

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 मेरी ज़िंदगी

लेखिका-जूही श्रीवास्तव

थोड़ा सा थक गयी हू अब मैं…
अपनों से उमीद करते ,टूटते ,बिखरते…. इसलिए,अब दूर निकलना छोड़ दिया है, पर ऐसा भी नहीं है कि अब… मैंने चलना ही छोड़ दिया है।
गिले शिकवे सिर्फ सांस लेने तक हि चलते है । बाद में तो सिर्फ पछ तावे रह जाते है …दोनो तरफ से निभाया जाए वही रिश्ता कामयाब होता है एक तरफ से सेंकी रोटी भी कौन खाता है।
फासले अक्सर रिश्तों में… अजीब सी दूरियां बढ़ा देते हैं,
कुछ फ़ासले भी ऐसे होते है जनाब …जो तय तो नही होते मगर नजदीकियां कमाल की रखते है ….
ऐसा भी नहीं है कि अब मैंने… अपनों से मिलना ही छोड़ दिया है

हाँ अकेला महसूस करती हूँ … खुद को अपनों की ही भीड़ में, पर ऐसा भी नहीं है कि अब मैंने अपनापन ही छोड़ दिया। याद तो करती हूँ मैं वो सब कुछ .. क्युकि लौटती है वो तारीखे ..हां पर वो दिन नही आते ….. परवाह भी करती हूँ सबकी, पर कितनी करती हूँ… बस बताना छोड़ दिया है ।
मै रोज़ थक जाती हूं कर के “मरम्मत” अपनी …पर हर रोज़ निकल आती है नई “दरारे “मुझमे. । …पर ये उम्मीद ही तो मुश्किल वक़्त का सबसे बड़ा सहारा है. ..”सब अच्छ होगा” ..एक प्यारी से मुस्कान के साथ धीरे से कानों में कह जाता है ।……..

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