रज्जू भैया पर विशेष आलेखन:डॉ. अरुण कुमार त्रिपाठी
,लेखक एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ज्ञाता,प्रयागराज
राजेंद्र सिंह रज्जू भैया के जन्म दिन पर विशेष
राजेंद्र सिंह रज्जू भैया ने मानवता के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था
उनके जन्मदिवस पर उनको याद करते हैं
प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए भी रज्जू भैया संघ-कार्य में प्रचारकवत जुटे रहे। औपचारिक तौर पर उन्हें प्रचारक १९५८ में घोषित किया गया पर सचाई यह है कि उन्होंने कार्यवाह पद को प्रचारक की भूमिका स्वयं प्रदान कर दी। भौतिक शास्त्र जैसे गूढ विषय पर असामान्य अधिकार रखने के साथ-साथ अत्यन्त सरल व रोचक अध्यापन शैली और अपने शिष्यों के प्रति स्नेह भावना के कारण रज्जू भैया प्रयाग विश्वविद्यालय के सर्वाधिक लोकप्रिय और सफल प्राध्यापक थे। वरिष्ठता और योग्यता के कारण उन्हें कई वर्षों तक विभाग के अध्यक्ष-पद का दायित्व भी प्रोफेसर के साथ-साथ सँभालना पड़ा। किन्तु यह सब करते हुए भी वे संघ-कार्य में अपने दायित्वों का निर्वाह पूरी तरह करते रहे। रीडर या प्रोफेसर बनने की कोई कामना उनके मन में कभी नहीं जगी। जिन दिनों प्रयाग विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग के रीडर पद के लिये आवदेन माँगे गये उन्होंने आवेदन पत्र ही नहीं दिया। सहयोगियों ने पूछा कि रज्जू भैया! आपने ऐसा क्यों किया? तो उन्होंने बड़े सहज ढँग से उत्तर दिया- “अरे मेरा जीवन-कार्य तो संघ-कार्य है, विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी नहीं। अभी मैं सप्ताह में चार दिन कक्षायें लेता हूँ, तीन दिन संघ-कार्य के लिए दौरा करता हूँ। कभी-कभी बहुत कोशिश करने पर भी विश्वविद्यालय समय पर नहीं पहुँच पाता। अभी तो विभाग के सब अध्यापक मेरा सहयोग करते हैं किन्तु यदि मैं रीडर पद पर अभ्यर्थी बना तो वे मुझे अपना प्रतिस्पर्धी समझने लगेंगे। इसलिए क्यों इस पचड़े में फँसना।” रज्जू भैया का सम्पूर्ण जीवन इस बात का साक्षी है कि उन्हें पद की आकांक्षा अथवा उसका मोह कभी रहा ही नहीं।
विश्वविद्यालय में अध्यापक रह कर भी उन्होंने अपने लिये धनार्जन नहीं किया। वे अपने वेतन की एक-एक पाई को संघ-कार्य पर व्यय कर देते थे। सम्पन्न परिवार में जन्म लेने, पब्लिक स्कूलों में शिक्षा पाने, संगीत और क्रिकेट जैसे खेलों में रुचि होने के बाद भी वे अपने ऊपर कम से कम खर्च करते थे। मितव्ययता का वे अपूर्व उदाहरण थे। वर्ष के अन्त में अपने वेतन में से जो कुछ बचता उसे गुरु-दक्षिणा के रूप में समाज को अर्पित कर देते थे। एक बार राष्ट्रधर्म प्रकाशन आर्थिक संकट में फँस गया तो उन्होंने अपने पिताजी से आग्रह करके अपने हिस्से की धनराशि देकर राष्ट्रधर्म प्रकाशन को संकट से उबारा। यह थी उनकी सर्वत्यागी संन्यस्त वृत्ति की अभिव्यक्ति!
प्रोफ़ेसर राजेन्द्र सिंह का जन्म 29 जनवरी 1922 को श्रीमती ज्वालादेवी एवं श्री कुंवर बलवीर सिंह जी के यहाँ उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर जिले के बनैल गाँव में हुआ था | श्री बलवीरसिंह जी स्वतंत्र भारत में उत्तरप्रदेश के प्रथम भारतीय मुख्य अभियंता नियुक्त हुए | अत्यंत शालीन, तेजस्वी और ईमानदार अफसर के नाते उनकी ख्याति थी | पिताजी की सादगी, मितव्ययता और जीवन मूल्यों के प्रति सजगता का विशेष प्रभाव राजेन्द्र सिंह पर पडा |
रज्जू भैय्या की प्रारंभिक शिक्षा बुलंदशहर, नैनीताल, उन्नाव और दिल्ली में हुई | स्नातक एवं परास्नातक की शिक्षा प्रयाग से उत्तीर्ण की | कोलेज में एक एंग्लोइंडियन से गाँधी जी को लेकर वादविवाद हो गया | एंग्लोइंडियन गांधी जी को गलत ठहरा रहा था, जबकि रज्जू भैय्या गांधी जी को सही बता रहे थे | इस पर एंग्लोइंडियन ने उन्हें दो घूंसे लगा दिए | रज्जू भैय्या ने बदला लेना तय किया और व्यायाम शुरू किया | प्रतिदिन दो – दो घंटे व्यायाम करते | फिर एक दिन जब पुनः उस एंग्लोइंडियन से विवाद का मौक़ा आया तो उसे एक मजबूत घूँसा जड़ दिया |
रज्जू भैय्या का समाज कार्य के प्रति रुझान प्रारम्भ से ही था | जब वे बी.एस-सी. फाईनल में थे तभी 20 वर्ष की आयु में ही बिना उन्हें बताये उनका विवाह तय कर दिया गया | लड़की के पिता सेना में डॉक्टर थे | उनकी एम.एस-सी. की प्रयोगात्मक परीक्षा लेने नोबेल पुरस्कार विजेता डा. सी.वी.रमन आये थे। वे उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए तथा उन्हें अपने साथ बंगलौर चलकर शोध करने का आग्रह किया; पर रज्जू भैया के जीवन का लक्ष्य तो कुछ और ही था।
प्रयाग में उनका सम्पर्क संघ से हुआ और वे नियमित शाखा जाने लगे। संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से वे बहुत प्रभावित थे। 1943 में रज्जू भैया ने काशी से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया। वहाँ श्री गुरुजी का ‘शिवाजी का पत्र, जयसिंह के नाम’ विषय पर जो बौद्धिक हुआ, उससे प्रेरित होकर उन्होंने अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित कर दिया। अब वे अध्यापन कार्य के अतिरिक्त शेष सारा समय संघ कार्य में लगाने लगे। उन्होंने घर में बता दिया कि वे विवाह के बन्धन में नहीं बधेंगे।
प्राध्यापक रहते हुए रज्जू भैया अब संघ कार्य के लिए पूरे उ.प्र.में प्रवास करने लगे। वे अपनी कक्षाओं का तालमेल ऐसे करते थे, जिससे छात्रों का अहित न हो तथा उन्हें सप्ताह में दो-तीन दिन प्रवास के लिए मिल जायें। पढ़ाने की रोचक शैली के कारण छात्र उनकी कक्षा के लिए उत्सुक रहते थे। रज्जू भैया सादा जीवन उच्च विचार के समर्थक थे। वे सदा तृतीय श्रेणी में ही प्रवास करते थे तथा प्रवास का सारा व्यय अपनी जेब से करते थे। इसके बावजूद जो पैसा बचता था, उसे वे चुपचाप निर्धन छात्रों की फीस तथा पुस्तकों पर व्यय कर देते थे।
1994 में संघ के तीसरे सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने अपने जीवनकाल में ही राजेन्द्र सिंह का सरसंघचालक पद पर अभिषेक कर दिया। यह संघ में पहली घटना थी। उनकी प्रसिद्धि और विनम्र व्यवहार के कारण लोग उन्हें प्यार से रज्जू भैया कहते थे। उनके सम्बन्ध विभिन्न राजनीतिक दलों और विभिन्न विचारधारा के राजनेताओं और लोगों से थे। सभी सम्प्रदाय के आचार्यों और संतों के प्रति उनके मन में गहरी श्रद्धा थी। इसके कारण सभी वर्ग के लोगों का स्नेह और आशीर्वाद उन्हें प्राप्त था। देश-विदेश के वैज्ञानिक, खासकर सर सी.वी. रमण जैसे श्रेष्ठ वैज्ञानिक का रज्जू भैया से गहरा लगाव था।
रज्जू भैया संघ के साथ 60 बर्ष तक जुड़े रहे और विभिन्न प्रकार के दायित्वों का निर्वाह करते रहे। इस तरह 1943 से 1966 तक वे प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करते हुए भी अपने प्रचारक के दायित्वों का निर्वाह भ्रमण करके करते रहे। प्रथम वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने सन् 1943 में लिया। इस दौरान वे नगर कार्यवाह का दायित्व निभा रहे थे। द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने 1954 में लिया। इस दौरान भाऊराव उन्हें पूरे प्रांत का दायित्व सौंपकर बाहर जाने की तैयारी कर चुके थे। तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने 1957 में लिया और उत्तर प्रदेश के दायित्व का निर्वहन करने लगे।
रज्जू भैया की संघ यात्रा असामान्य है। वे युवा अवस्था में सजग व पूर्ण विकसित मेधा शक्ति लेकर प्रयाग आये। सन् १९४२ में एम.एस-सी. प्रथम वर्ष में संघ की ओर आकर्षित हुए और केवल एक-डेढ़ वर्ष के सम्पर्क में एम.एस-सी. पास करते ही वे प्रयाग विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पाने के साथ-साथ प्रयाग के नगर कायर्वाह का दायित्व सँभालने की स्थिति में पहुँच गये। १९४६ में प्रयाग विभाग के कार्यवाह, १९४८ में जेल-यात्रा, १९४९ में दो तीन विभागों को मिलाकर संभाग कार्यवाह, १९५२ में प्रान्त कार्यवाह और १९५४ में भाऊराव देवरस के प्रान्त छोड़ने के बाद उनकी जगह पूरे प्रान्त का दायित्व सँभालने लगे।
१९६१ में भाऊराव के वापस लौटने पर प्रान्त-प्रचारक का दायित्व उन्हें वापस देकर सह प्रान्त-प्रचारक के रूप में पुन:उनके सहयोगी बने। भाऊराव के कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ तो पुन: १९६२ से १९६५ तक उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक, १९६६ से १९७४ तक सह क्षेत्र-प्रचारक व क्षेत्र-प्रचारक का दायित्व सँभाला। १९७५ से १९७७ तक आपातकाल में भूमिगत रहकर लोकतन्त्र की वापसी का आन्दोलन खड़ा किया। १९७७ में सह-सरकार्यवाह बने तो १९७८ मार्च में माधवराव मुले का सर-कार्यवाह का दायित्व भी उन्हें ही दिया गया। १९७८ से १९८७ तक इस दायित्व का निर्वाह करके १९८७ में हो० वे० शेषाद्रि को यह दायित्व देकर सह-सरकार्यवाह के रूप में उनके सहयोगी बने।
रज्जू भैया इस बात से बड़े दुखी थे कि क्रान्तिकारी ‘बिस्मिल’ के नाम पर इस देश में कोई भव्य स्मारक हमारे नेता लोग नहीं बना सके। वे तुर्की के राष्ट्रीय स्मारक जैसा स्मारक भारत की राजधानी दिल्ली में बना हुआ देखना चाहते थे। उन्होंने कहा था: “लच्छेदार भाषण देकर अपनी छवि को निखारने के लिये तालियाँ बटोर लेना अलग बात है, नेपथ्य में रहकर दूसरों के लिये कुछ करना अलग बात है।” वे चिन्तक थे, मनीषी थे, समाज-सुधारक थे, कुशल संगठक थे और कुल मिलाकर एक बहुत ही सहज और सर्वसुलभ महापुरुष थे। ऐसा व्यक्ति बड़ी दीर्घ अवधि में कोई एकाध ही पैदा होता है। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया । यहॉं तक की अपने घर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यालय बना दिया और वहीं पर सरस्वती विद्या मंदिर ज्वाला देवी के नाम से विद्यालय खोला गया। प्रयागराज सहित पूरा देश रज्जू भैया का एवं उनकी सेवाओं का ऋणी है तथा आज उनके बताए रास्ते पर चलने की नितांत आवश्यकता है।